Lambi Judai Story: कुछ आवाजें ऐसी होती हैं जो रूह को छू लेती हैं। इतनी दिलकश कि यह मुल्कों की दूरियां और सरहदें पार कर सभी को अपने में समा लेती हैं। एक ऐसी ही आवाज़ आपने सुनी तो काफ़ी कम ही होगी, लेकिन जब भी सुनी होगी आपका दिल कुछ पल को ठहर गया होगा। हम बात कर रहें हैं, मल्लिका–ए–रेगिस्तान पाकिस्तानी गायिका रेशमा जी की। उनकी सादगी भी कमाल थी और उन्हें फ़िल्मों में गाने से एतराज़ था। यह क़िस्सा इसी बात से जुड़ा है कि कितनी मुश्किल से सुभाष घई ने उन्हें हिन्दी फ़िल्म में पहला गाना गाने के लिए राज़ी किया था।
भारत में जन्मीं थीं पाकिस्तानी रेशमा
इत्तिफ़ाक़ की बात देखिए कि जिन्हें हम पाकिस्तानी गायिका रेशमा के नाम से जानते हैं उनका जन्म भारत में ही हुआ था। जी हाँ 1947 में भारत में ही राजस्थान के एक खानाबदोश बंजारा परिवार में रेशमी जी ने जन्म लिया था। उनका परिवार भारत के विभाजन के बाद कराची में स्थानांतरित हो गया। शायद इसी लिए यह बंजारापन, यह बेपरवाही उनकी उनकी खुली और आत्ममुक्त आवाज़ और गायकी में नज़र आती है।
रेशमा ने कभी संगीत नहीं सीखा
हैरत में डालने वाली बात यह है कि इतनी सधी और सुरीली आवाज़ की मालिक रेशम ने कभी संगीत की तालीम कहीं से नहीं ली। ख़ुद कई बार रेशम जी ने इसका ज़िक्र भी किया था कि मुझे सरगम का नहीं पता। इनकी पुरज़ोर और बुलंद आवाज़ अजूर उसकी दीवानगी रफ्ता रफ्ता सरहद के पार भारत में भी पहुँची, जैसे अपनी जड़ों को खोज रहीं हों।
सुभाष घई के मन में ख्वाहिश उठी कि रेशमा जी की आवाज़ को वह अपनी फ़िल्म का हिस्सा बनाएँ
बात उन दिनों की है जब रेशमा के चाहने वालों में अब हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री के लोग भी जुड़ चुके थे। बॉलीवुड के मशहूर निर्माता निर्देशक सुभाष घई ने जब उनकी आवाज सुनी उनके मन में ख्वाहिश उठी कि रेशमा जी की आवाज़ को वह अपनी फ़िल्म का हिस्सा बनाएँ। सुभाष घई ने रेशमा जी से संपर्क करा और अपनी तमन्ना को ज़ाहिर किया। इनकी आवाज के जादू को जब सुभाष घई ने अपनी रिकॉर्ड करना चाहा तो रेशम जी ने मना कर दिया और कहा कि मैं स्टूडियो नहीं आउंगी। आइए विस्तार से जानते हैं, कि यह कौन सी फ़िल्म का कौन सा गीत था।
कैसे आए सुभाष घई रेशमा जी के संपर्क में
रेशमा जी जब सबसे पहले भारत आयीं तो इन्होंने शुरुआत में कई महलों में अपना हुनर दिखाया और गाया। इसी दौर में एक महफ़िल राजकपूर साहब के घर पर भी थी। यहाँ सुभाष नहीं रहना सुना। सुभाष घई ने अपने एक इंटरव्यू में जिक्र किया था कि रेशमा जी ने अपने गीत पूरे समर्पण से गाए लेकिन वो किसी से भी ज्यादा बात करने से कतरा सी रहीं थी। गाते हुए किसी से भी नज़र नहीं मिला रहीं थीं। उनकी सादगी और फ़न का अनोखा संगम सबको भा गया था।
राज कपूर भी थे रेशमा से प्रभावित मगर क्या बात थी अटपटी
किसी पार्टी में रेशमा जी ने गीत गाया था जिसके बोल थे ‘अखियाँ नु रहन दे अखियाँ दे कोल कॉल’। ये गीत उस पार्टी में मौजूद सभी मेहमानों को बेहद पसंद आया। वहीं बैठे राज कपूर साहब को तो इतना भा गया कि उन्होंने अपनी 1973 के फ़िल्म बॉबी में इसका एक वर्जन भी रखा। गीत की आत्मा तो रेशमा जी के गीत पर आधारित थी मगर इसे रिकॉर्ड किया गया लताजी की आवाज में।
प्यारेलाल क्यों थे दुविधा में
उस वक्त मशहूर म्यूजिक डायरेक्टर जोड़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल बॉबी फ़िल्म का म्यूसिक दे रहे थे। इस जोड़ी के प्यारेलाल जी ने एक बार अपने एक इंटरव्यू में कहा कि जब यह गाना लता जी की आवाज में रिकॉर्ड हुआ तो हम दोनो (यानि कि लक्ष्मीकांत प्यारेलाल) बहुत झिझक रहे थे और दुविधा में थे। उन दोनों की दुविधा का कारण यह था कि यह गाना उनकी ओरिजिनल धुन नहीं थी और रेशमा जी की आवाज़ के बगैर, लता जी की आवाज में इस गीत को रिकॉर्ड करना उन्हें अटपटा सा लग रहा था। लेकिन राज कपूर साहब के सामने उन दोनों ज्यादा चली नहीं। इसका मलाल लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के मन में रह गया।
आख़िर कैसे आया सुकून लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल को
वक्त बिता और इत्तेफ़ाक से 1983 में एक फ़िल्म बन रही थी जिसका टाइटल था ‘हीरो’ जिसे सुभाष घई डायरेक्ट कर रहे थे। उस फ़िल्म में सिचुएशन थी जहाँ एक गीत ऐसा हो सकता था जो रेशमा जी की आवाज़ में ख़ूब जँचता। इस दौरान रेशमा जी अभिनेता दिलीप कुमार साहब के यहाँ ठहरी हुईं थीं। सुभाष घई एक सिचुएशन पर इस गीत को रेश्मा की आवाज में रखना चाहते थे। जब सुभाष जी ने इस बारे में बात की तो पहले रेशमा जी ने सीधे तौर पर गाने के लिए मना कर दिया।
शायद शर्मीली थीं रेशमा
उनकी सादगी इतनी थी कि वह फ़िल्म में गाने से घबरा गयीं थीं। बहुत लेकिन सुभाष भाई के बहुत कहने पर और दिलीप साहब की भी इल्तजा पर, रेशमा जी ने हाँ तो कर दी। हाँ तो के दी, लेकिन एक शर्त रखी कि गाना गाने के लिए वो किसी स्टूडियो में नहीं जाएंगी। सुभाष घई को अच्छे से समझ आ गया था मालूम कि अगर गाना रिकॉर्ड करना है तो इनकी बात तो माननी ही होगी।
शायद रेशमा स्टूडियो जाने से शर्माती थीं। फिर किसी तरह दिग्गज अभिनेता दिलीप कुमार साहब के घर पर रिकॉर्डिंग रखने के लिए रेशमा तैयार हो गयीं। गीत को बगैर बगैर स्टूडियो रिकॉर्ड करने के बावजूद इसमें ऐसा तिलिस्म था में कि इस गीत ने तो इतिहास रच ही दिया था। प्यारेलाल जी बताया था कि रेशमा से इस गीत को गवा कर उनकी जोड़ी को बहुत बड़ा सुकून मिला। आख़िर रेशमा की पुरज़ोर आवाज़ में एक बेहतरीन गीत रिकॉर्ड करने का लाजवाब मौक़ा लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को मिल ही गया।
रेश्मा गाना रिकॉर्ड करते वक़्त एक लाइन पर अटक गईं थीं – Story of Lambi Judai Song
एक और बात गौर करने वाली है कि रेशमा जी इस गाने को रिकॉर्ड करते समय एक जगह काफी देर तक अटक गईं थीं। गीत में एक लाइन है ‘ये हिज्र की ऊंची दीवार गिराई’। यहाँ पर कहा जाता है कि रेशमा जी थोड़ा अटक रही थीं। इस हिस्से को रिकॉर्ड करने में काफी वक्त लगा। ख़ैर यह गाना क्या कमाल का रिकॉर्ड हुआ है और इतिहास के पन्नों पर हमेशा के लिए दर्ज हो गया। इस गीत को आप जानते ही होंगे ‘लंबी जुदाई’।
दिल चीर देने वाला यह गीत कौन सा है?
गीत यूँ तो उदासी से भरा है मगर रेशमा की दरदभरी आवाज़ दिल चीर देती है। इस गाने में रेशमा जी की आवाज़ में एक अलहदा सी उदासी को महसूस कर सकते हैं आप। सुभाष घाई ने भी इस गाने को बहुत ख़ूबसूरती से फ़िल्माया है। जैकी श्रॉफ और मीनाक्षी शेषाद्रि अभिनीत इस फ़िल्म की अपार सफलता में ‘लंबी जुदाई’ गीत का बहुत बड़ा योगदान रहा है।
यूँ तो रेशमा ने बॉलीवुड में कुछ और भी चुनिंदा गीत गाए हैं लेकिन ‘लंबी जुदाई चार दिनों की’ नहीं बरसों लंबी हो गई है। अफ़सोस आज के हिन्दी सिनेमा और उसकी तड़क भड़क में संवेदनाओं और ख़ासकर उदासी भरे गानों की जगह ही नहीं बची। आज रेशमा जी हमारे बीच नहीं हैं, मगर जब कभी दिल उदास होता है तो उनकी आवाज़ में गाया लंबी जुदाई के गीत से अपने दिल की टीस को और ज़्यादा बढ़ाने का भी अपना ही लुत्फ़ होता है।
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