
Bollywood Villains popular than hero : बॉलीवुड में हीरो की चमक हमेशा से रही है, लेकिन कहानी को असली मोड़ देने का काम अक्सर “विलेन” करते हैं। एक अच्छा खलनायक न सिर्फ कहानी को गहराई देता है, बल्कि दर्शकों के दिलों में दहशत और दिलचस्पी का मिश्रण भी पैदा करता है। यह लेख उन्हीं यादगार खलनायकों को समर्पित है, जिन्होंने हीरो से ज़्यादा सुर्खियां बटोरीं!
क्लासिक युग के अमर खलनायक (Bollywood Villains popular than hero in classic era)
बॉलीवुड का स्वर्णिम दौर – 1950 से 1980 तक – केवल रोमांस, संगीत और नायक-नायिकाओं की कहानियों का युग नहीं था, बल्कि यह वह समय था जब खलनायक फिल्मों की रीढ़ बन कर उभरे। उस दौर के खलनायक सिर्फ विरोधी नहीं थे, बल्कि जटिल भावनाओं, मनोवैज्ञानिक गहराई और दिल दहला देने वाले डायलॉग्स के साथ परदे पर आते थे और अपनी अदाकारी से दर्शकों को उतना ही प्रभावित करते थे जितना कि नायक।
उस समय के खलनायकों में एक खास किस्म का चार्म और स्क्रीन प्रेज़ेन्स हुआ करता था। वे बुरे ज़रूर होते थे, लेकिन उनके पास एक ऐसा व्यक्तित्व होता था जो दर्शकों को आकर्षित करता था। उनकी चाल-ढाल, बात करने का अंदाज़, कपड़े पहनने का तरीका सब कुछ स्टाइलिश और असरदार होता था।
क्लासिक युग के खलनायक सिर्फ बाहरी रूप से बुरे नहीं थे, बल्कि कई बार वे समाज, हालात, या अपने अतीत के शिकार होते थे। उनके किरदारों में एक ट्रैजिक आयाम होता था, जो दर्शकों को उनके प्रति सहानुभूति भी दे जाता था। उदाहरण के लिए, बलराज साहनी या रहमान जैसे अभिनेताओं ने खलनायकी में भी एक तरह की संवेदनशीलता लाई।
अक्सर फिल्म की कहानी खलनायक की वजह से ही आगे बढ़ती थी। नायक की ताकत, संघर्ष और विजयी क्षण तभी मायने रखते थे जब सामने कोई ताकतवर, चालाक और दमदार खलनायक होता था। क्लासिक युग में ऐसे खलनायकों की कोई कमी नहीं थी।
प्राण: खलनायकी के पितामह पितामह
प्राण साहब को बॉलीवुड का पहला “सुपरस्टार विलेन” कहा जाए तो गलत नहीं होगा। 1940 से 1990 तक, उन्होंने 350 से ज्यादा फिल्मों में नकारात्मक भूमिकाएं निभाईं। उन्होंने खलनायकी को एक नई पहचान दी — जहां बुराई सिर्फ डराने का ज़रिया नहीं थी, बल्कि कला, स्टाइल और गहराई का प्रतीक भी बन गई।
प्राण साहब ने अपने फिल्मी सफर की शुरुआत 1940 की पंजाबी फिल्म ‘यमला जट‘ से की। विभाजन के बाद मुंबई आकर उन्होंने हिंदी सिनेमा में कदम रखा, और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
उनकी सबसे खास बात यह थी कि उन्होंने सिर्फ एक ही तरह के खलनायक नहीं निभाए। कभी ठंडे दिमाग से साज़िश रचने वाले व्यापारी बने, तो कभी पागलपन की हद तक सनकी गैंगस्टर। उन्होंने अपने किरदारों में इतने शेड्स डाले कि दर्शक हर बार एक नया “विलेन” देखता था।
प्राण साहब का पहनावा, हेयरस्टाइल, और बोलने का अंदाज़ – हर बार अलग होता था। वे अपने किरदार के लिए स्टाइलिंग पर खास ध्यान देते थे। चाहे वो “राम और श्याम“ का घमंडी रईस हो, “कश्मीर की कली“ का चालाक व्यापारी, या “मधुमती“ का रहस्यमय प्रेमी – हर किरदार में उनका लुक और आवाज़ का टोन बदल जाता था।
प्राण साहब के डायलॉग सिर्फ शब्द नहीं होते थे, वो एक प्रभाव होते थे। उनका हर वाक्य, हर हंसी, हर लुक दर्शकों पर गहरा असर छोड़ता था। फिल्म ‘जंजीर‘ (1973) में उनका किरदार शेर ख़ान, जहां उन्होंने एक पठान के रूप में नायक को चुनौती दी, दर्शकों के दिल में बस गया। उनका डायलॉग – “शेर ख़ान नाम है मेरा… काम है वफ़ा निभाना और बदला लेना!” – आज भी लोगों की जुबान पर है।
प्राण साहब को 2001 में भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण से नवाज़ा गया और 2013 में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार मिला। यह न सिर्फ उनके अभिनय का सम्मान था, बल्कि खलनायकी जैसे ‘नेगेटिव’ कहे जाने वाले रोल को एक कला के रूप में मान्यता भी थी।
Bollywood Villains popular than hero



अमजद खान: गब्बर सिंह की दहशत
जो डर गया… समझो मर गया!”1975 में रिलीज़ हुई शोले भारतीय सिनेमा की सबसे प्रतिष्ठित फिल्मों में गिनी जाती है, लेकिन इस फिल्म को “कल्ट क्लासिक” का दर्जा दिलाने में सबसे बड़ा योगदान था – गब्बर सिंह का। इस किरदार को पर्दे पर जीवंत किया अमजद ख़ान ने, जिन्होंने खलनायकी को एक नया, भयावह, लेकिन बेहद प्रभावशाली रूप दिया। गब्बर सिंह का किरदार मूल रूप से एक डाकू था, लेकिन अमजद ख़ान ने उसमें ऐसी पागलपन भरी सनक, हिंसा की अजीब ख़ुशी, और एक अजीबोगरीब हंसी को जोड़ा कि वह डरावना होते हुए भी अविस्मरणीय बन गया।
गब्बर सिंह के संवाद केवल डायलॉग नहीं थे – वे सिनेमा के इतिहास में छप जाने वाले जुमले थे:
“कितने आदमी थे?”
“जो डर गया, समझो मर गया!”
“अरे ओ सांभा! कितने इनाम रखे हैं सरकार हम पे?”
इन डायलॉग्स को अमजद ख़ान की गूंजती हुई, कर्कश लेकिन करिश्माई आवाज़ ने जो असर दिया, वह आज तक कोई नहीं भूल पाया है। वे हर शब्द के साथ एक मानसिक दबाव बनाते थे – एक अजीब सा डर, जो दर्शकों के मन में घर कर जाता था।
अमरीश पुरी: मोगैम्बो की गर्जना
अमरीश पुरी ने फिल्म मिस्टर इंडिया (1987) के मोगैम्बो के रूप में एक ऐसा खलनायक पेश किया, जिसकी गर्जना सुनकर दर्शक सिहर उठते थे। “मोगैम्बो खुश हुआ“ जैसे डायलॉग्स और उनकी शारीरिक भाषा ने इस किरदार को लीजेंडरी बना दिया। पुरी साहब ने दिखाया कि एक विलेन कैसे कॉमिक टाइमिंग के साथ भी डरावना हो सकता है।
अमरीश पुरी की खासियत थी कि वे डर को भी एंटरटेनमेंट में बदल सकते थे। मोगैम्बो के किरदार में उन्होंने इतनी कॉमिक टाइमिंग भरी कि दर्शक डरते हुए भी मुस्कुराते थे। वह बच्चों की स्कूल यूनिफॉर्म में बम लगवाता था, लोगों को खिलौने की तरह उड़ा देता था – मगर फिर भी दर्शकों को खलता नहीं था, क्योंकि उनकी परफॉर्मेंस में एक सिनेमाई जादू था।
अमरीश पुरी ने अपने अभिनय के ज़रिए यह दिखा दिया कि खलनायक सिर्फ अंधेरे और आतंक का प्रतीक नहीं होता – वह मनोरंजन, शैली और अभिनय का चरम बिंदु भी हो सकता है।
“मोगैम्बो खुश हुआ” एक संवाद नहीं, बल्कि एक गर्जना थी — जिसने भारतीय सिनेमा के हर दर्शक को सुना, डराया और मोहित किया। और यही वजह है कि मोगैम्बो आज भी जिंदा है… हमारे ज़हन में, हमारी भाषा में, हमारी यादों में।
डैनी डेन्जोंगपा – करिश्माई क्रूरता
90s में डैनी के पास एक अलग स्टाइल थी। अग्निपथ (1990) में उनका कांचा चीना एक सलीके वाला माफिया था, जो शांति से बात करता है लेकिन काम मौत का करता है।
उन्होंने खलनायकी को रॉयल टच दिया – सभ्य दिखने वाला शख्स, जो भीतर से बर्बर है।
कांचा चीना कोई आम माफिया नहीं था — वह एक शहरी, उच्च–वर्गीय, शांति से सोचने वाला अपराधी था।
उसके कपड़े महंगे थे, उसका लहजा नपा–तुला था, और उसकी हर हरकत में सभ्यता थी। लेकिन वही आदमी जब “विजय दीनानाथ चौहान” से भिड़ता है, तो उसकी आंखों से निकलती नफरत और ठंडा जहर देखने लायक होता है।
डायलॉग जैसे:
“ये दुनिया बड़ी अजीब है विजय… यहा इंसान की औकात, उसकी बंदूक से तय होती है।”
डैनी ने इस किरदार को न सिर्फ निभाया, बल्कि जीया।
डैनी के अधिकतर खलनायक किरदारों में एक पैटर्न था – वे बोलते कम थे, मगर जब बोलते थे, तो उनके हर शब्द में गहराई होती थी। वे गुंडों की तरह नहीं, राजा की तरह पेश आते थे — जैसे क्रूरता भी एक कला हो।
यही कारण था कि वे सिर्फ दर्शकों को डराते नहीं थे, बल्कि सम्मोहित कर लेते थे।
मॉडर्न एरा के यादगार विलेन (Bollywood Villains popular than hero in modern era)
“बुराई अब सिर्फ काली नहीं, कई रंगों में थी…”
90 के दशक और 2000 के बाद, बॉलीवुड में एक नई क्रांति आई – कहानी कहने के तरीके बदले, हीरोज़ के किरदार और ज्यादा ग्रे हुए, और खलनायक भी एक आयामी ‘बुरा इंसान’ न रहकर, सोचने-समझने वाले इंसान बन गए। ये वो दौर था जब विलेन “क्यों बुरा है?” – इस सवाल का जवाब देने लगा।
शाहरुख खान: डर का चेहरा
किंग शाहरूख खान ने डर (1993), बाज़ीगर (1993), और अंजाम (1994) में विलेन जैसे किरदार निभाए, तो दर्शकों को समझ आया कि खलनायक खूबसूरत भी हो सकता है… और डरावना भी।
डर में “क…क…क…किरण!” कहने वाला जुनूनी प्रेमी एक साइकोलॉजिकल केस बन गया।
बाज़ीगर में वह हीरो भी था और कातिल भी — बदले की भावना से भरा एक शातिर दिमाग।
ये किरदार दर्शकों के दिल में इसलिए छा गए क्योंकि वे सिर्फ क्रूर नहीं थे, उनके अंदर भावनाओं का तूफान था — प्यार, गुस्सा, बदला, जुनून।
अजय देवगन – ‘काली’
साल 2005, बॉलीवुड में एक अलग तरह की हॉरर-थ्रिलर फिल्म आई – KAAL, जंगल की रहस्यमयी घटनाएं और एक ऐसा रहस्य छुपा था जो आदमी की सोच और आत्मा दोनों को हिला देता है।और उस रहस्य का नाम था ‘काली’, जिसे निभाया था अजय देवगन ने, अपने करियर के सबसे अलग, सबसे अनदेखे और सबसे भयावह अंदाज़ में। शुरुआत में ‘काली’ हमें एक लोकल गाइड की तरह मिलता है – साइलेंट, स्टाइलिश, और रहस्यमय।
जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है, पता चलता है कि जंगल में जो लोग मारे जा रहे हैं, वो सब किसी ‘कर्मों के हिसाब’ का हिस्सा हैं।और इस जंगल में जो “गाइड” बनकर आया है, वो असल में मौत का दूत है। आज भी ‘Kaal’ अगर टीवी पर आ जाए, तो काली की एंट्री वाला सीन सबका ध्यान खींच लेता है।
सैफ अली खान – लंगड़ा त्यागी का खौफ
सैफ अली खान को पहले हम सबने रोमांटिक भूमिकाओं में देखा – हम तुम, कल हो न हो, सलाम नमस्ते जैसे फिल्मों में उनका कूल ड्यूड अंदाज़ दर्शकों के दिलों को भाता था। लेकिन ओंकारा में उनका किरदार ‘लंगड़ा त्यागी’ – एक चालाक, महत्वाकांक्षी और क्रूर इंसान – उनके अभिनय जीवन का टर्निंग पॉइंट साबित हुआ। बदन पर देसी लिबास, मुंह में बीड़ी, आंखों में जलन और ज़ुबान पर ज़हर। सैफ ने अपने रूप, उच्चारण और देसी गाली-गलौज से इस किरदार को एक अनदेखा रूहानी डर दिया।
संजय दत्त: कलंकित हीरो
फिल्म कलंक (1993) में संजय दत्त का बल्लू चरित्र एक ऐसा गैंगस्टर था, जिसमें अच्छाई और बुराई का मिश्रण था। उनकी आवाज़ और बॉडी लैंग्वेज ने इस किरदार को यादगार बना दिया। यह भूमिका इस बात का उदाहरण है कि कैसे एक विलेन “ग्रे शेड्स” में भी दर्शकों का सिम्पैथी पा सकता है। साथ ही उनकी खलनायक को कौन भूल सकता है।
“हम वो गली के गुंडे नहीं हैं, जो अपनी मां की वजह से डर जाएं… हम वो बेटे हैं, जो मां के लिए कुछ भी कर सकते हैं।” जब संजय दत्त ने ये डायलॉग कहा था, तो पूरा सिनेमाघर तालियों से गूंज उठा। ‘वास्तव’ (1999) सिर्फ एक फिल्म नहीं थी, बल्कि एक इमोशनल, रॉ और खून से सनी ऐसी कहानी थी, जिसने संजय दत्त को ‘रघु’ के रूप में अमर कर दिया।
अशुतोष राणा – साइकोलॉजिकल हॉरर का नया नाम
संघर्ष (1999) और दुश्मन (1998) में अशुतोष राणा ने जो खौफ पैदा किया, वह आज भी दर्शकों के रोंगटे खड़े कर देता है। संघर्ष में उनका चरित्र लज्जा शंकर पांडे एक धार्मिक उन्माद से ग्रसित मनोरोगी था, जो बच्चों की बलि देता है। दुश्मन में उन्होंने अंधेरे में घात लगाकर हमला करने वाले सीरियल किलर की भूमिका निभाई।
इन किरदारों ने दिखाया कि खलनायकी सिर्फ फिजिकल नहीं, मानसिक आतंक भी हो सकता है।
समकालीन सिनेमा के चर्चित विलेन (Bollywood Villains popular than hero in Contemporary Cinema)
आज के दौर में विलेन्स साइकोलॉजिकल और स्टाइलिश हो गए हैं। उनके पास न सिर्फ पावर है, बल्कि एक कूल अप्रोच भी है।
पंकज त्रिपाठी – कालीन भैया.
“हम बिज़नेस करते हैं, बंदूक का भी और गांजे का भी।”
कालीन भैया, यानी मिर्ज़ापुर का वह अपराध सम्राट, जो बोलता बहुत धीरे है, लेकिन चलता बेहद शातिर है। उनका किरदार ना सिर्फ डरावना है, बल्कि बेहद व्यावसायिक और कूटनीतिक भी है। पंकज त्रिपाठी ने दिखाया कि विलेन की शक्ति उसकी चुप्पी में भी हो सकती है।
जॉन अब्राहम – जिम
एक विलेन जो खुद एक्स–रॉ एजेंट रहा हो, वो सिर्फ बंदूक से नहीं, अंदरूनी टूटन से भी खतरनाक होता है।
पठान में जिम का किरदार एक ऐसे व्यक्ति की छवि है जो सिस्टम से टूट चुका है, और अब उस सिस्टम को तोड़ने पर तुला है।
जॉन का फिज़िकल प्रेजेंस और ‘emotionally broken yet deadly’ अप्रोच ने इस विलेन को मॉडर्न आइकन बना दिया।
रणवीर सिंह: अलाउद्दीन खिलजी का आतंक
फिल्म पद्मावत (2018) में रणवीर सिंह ने अलाउद्दीन खिलजी का किरदार निभाकर साबित किया कि वे कितने वर्सेटाइल हैं। उनकी क्रूरता और चालाकी ने इस ऐतिहासिक खलनायक को एक नया आयाम दिया। “ताकत के बिना इश्क़ भी नहीं टिकता“ जैसे डायलॉग्स ने उन्हें नए ज़माने का आइकन बना दिया।
विलेन याद क्यों रह जाते हैं (Why some Bollywood Villains popular than hero)
मजबूत डायलॉग्स: गब्बर का “कितने आदमी थे?” या मोगैम्बो का “खुश हुआ” जैसे डायलॉग्स कल्चर का हिस्सा बन जाते हैं।
यूनिक स्टाइल: प्राण की सूट-बूट या रणवीर की खिलजी का लुक किरदार को अलग पहचान देते हैं।
साइकोलॉजिकल डेप्थ: आधुनिक विलेन्स के पीछे की कहानी उन्हें रियलिस्टिक बनाती है।
करिश्माई परफॉर्मेंस: अदाकारी का जलवा हीरो को भी फीका कर देता है।
बॉलीवुड के ये खलनायक सिर्फ किरदार नहीं, बल्कि सिनेमा की विरासत हैं। इन्होंने साबित किया कि एक अच्छा विलेन हीरो से ज्यादा याद किया जा सकता है। तो अगली बार जब कोई विलेन स्क्रीन पर आए, तो उसकी एक्टिंग का लुत्फ़ उठाना न भूलें!
FAQ – Why Bollywood Villains popular than hero?
Q1: बॉलीवुड में विलेन्स का महत्व क्यों है?
A: विलेन्स कहानी को कॉन्फ्लिक्ट और ड्रामा देते हैं। बिना मजबूत एंटागोनिस्ट के हीरो की जीत अधूरी लगती है।
Q2: सबसे आइकॉनिक विलेन कौन है?
A: गब्बर सिंह (शोले) और मोगैम्बो (मिस्टर इंडिया) टॉप लिस्ट में हैं।
Q3: क्या आज के विलेन्स पहले जैसे हैं?
A: नहीं, आज के विलेन्स ज्यादा कॉम्प्लेक्स और साइकोलॉजिकल हैं, जैसे खिलजी या कबीर नामदार।
Q4: सबसे मशहूर विलेन डायलॉग कौन सा है?
A: गब्बर सिंह का “कितने आदमी थे?” और मोगैम्बो का “खुश हुआ”।
Q5: नए एक्टर्स में कौन है जो विलेन की भूमिका में खरा उतर सकता है?
A: रणवीर सिंह (खिलजी) और विक्की कौशल (सर्जिकल स्ट्राइक) ने दिखाया है कि नई पीढ़ी भी विलेन्स को जस्टिस दे सकती है।
फ़िल्मी खलनायकों की विरासत की चर्चा करते वक़्त हम सिर्फ़ कुछ ही अभिनेताओं की बात इस लेख में कर पाए हैं। जल्द ही हम भारतीय सिनेमा के एक से बढ़कर एक खलनायकों की फ़िल्मों और उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में बहुत कुछ बताएँगे। इस श्रृंखला में प्रेम चोपड़ा, मदन पुरी, के एन सिंह, ललिता पवार, रणजीत, शक्ति कपूर, कबीर बेदी और सभी नामी ग्रामी एवं भूले बिसरे खलनायक शामिल होंगे।
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